5000 करोड़ के विज्ञापनों के नीचे छिपा है 35 लाख लोगों पर नोटबंदी की मार का दर्द
प्रधानमंत्री के एक फैसले से 35 लाख लोगों की नौकरियां चली जाएं, इस बात को ढंकने के लिए मोदी सरकार विज्ञापनों पर और कितने हज़ार करोड़ फूंकेगी। साढ़े चार साल में 5000 करोड़ विज्ञापनों पर ख़र्च करने वाली सरकार की एक नीति के कारण इतने परिवारों का घर उजड़ गया। नोटबंदी भारत की आर्थिक संप्रभुता पर हमला था। इसके पीछे के फैसलों और लाभ पाने वालों की कहानी अभी नहीं जानते हैं मगर इसके असर का ढोल अब फटने लगा है। चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने रिटायर होने के तुरंत बाद कह दिया कि काला धन में कोई कमी नहीं आई। भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर और मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार भी खुलकर कह रहे हैं कि नोटबंदी के कारण भारत की आर्थिक रफ्तार धीमी हुई है। इस धीमेपन का कितना असर नौकरी कर रहे और नौकरी में आने की चाह रखने वाले कितने नौजवानों और घरों पर पड़ा होगा, हम इसे ठीक-ठीक नहीं जान सके हैं। नोटबंदी और जीएसटी से बर्बाद परिवारों की व्यक्तिगत कहानियां हमारे सामने नहीं हैं।
ऑल इंडिया मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन (AMIO) ने ट्रेडर,माइक्रो, स्मॉल और मिडियम सेक्टर में एक सर्वे कराया है। इस सर्वे में इस सेक्टर के 34,000 उपक्रमों को शामिल किया गया है। किसी सर्वे के लिए यह छोटी-मोटी संख्या नहीं है। इसी सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस सेक्टर में 35 लाख नौकरियां चली गईं हैं। ट्रेडर सेगमेंट में नौकरियों में 43 फीसदी, माइक्रो सेक्टर में 32 फीसदी, स्माल सेगमेंट में 35 फीसदी और मिडियम सेक्टर में 24 फीसदी नौकरियां चली गई हैं। 2015-16 तक इस सेक्टरों में तेज़ी से वृद्धि हो रही थी लेकिन नोटबंदी के बाद गिरावट आ गई जो जीएसटी के कारण और तेज़ हो गई। AMIO ने हिसाब दिया है कि 2015 पहले ट्रेडर्स सेक्टर में 100 कंपनियां मुनाफा कमा रही थीं तो अब उनकी संख्या 30 रह गई है।
संगठन ने बयान दिया है कि सबसे बुरा असर स्व-रोज़गार करने वालों पर पड़ा है। इसमें दर्ज़ी, मोची, हज़ामत, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन का काम करने वालों पर पड़ा है। यह कितना भयानक है। दिन भर की मेहनत के बाद मामूली कमाई करने वालों पर नोटबंदी ने इतना क्रूर असर डाला है। 2015-16 तक इन सेक्टर में काफी तेज़ी से वृद्धि हो रही थी। लेकिन नोटबंदी के बाद ही इसमें गिरावट आने लगी जो जीएसटी के कारण और भी तेज़ हो गई। अब सरकार से पूछा जाना चाहिए कि मुद्रा लोन को लेकर जो दावा कर रही है उस दावे का आधार क्या है। मई 2017 में अमित शाह ने दावा किया था कि मुद्रा लोन के कारण 7.28 करोड़ लोगों ने स्व-रोजगार हासिल किया है। सितंबर 2017 में SKOCH की किसी रिपोर्ट के हवाले से पीटीआई ने खबर दी थी कि मुद्रा लोन के कारण 5.5 करोड़ लोगों को स्व-रोज़गार मिला है। उस दावे का आधार क्या है। 35 लाख लोगों पर आश्रित परिवारों की संख्या निकाले तो डेढ़ दो करोड़ लोग इस फैसले से सीधे प्रभावित दिखते हैं। वो लोग बड़े सेठ नहीं हैं। आम लोग हैं।
मैं पिछले दिनों दिल्ली और मुंबई में कई लोगों से मिला हूं जिनका नोटबंदी और जीएसटी से पहले अच्छा खासा कारोबार चल रहा था मगर उसके बाद वे बर्बाद हो गए। किसी का साठ लाख का पेमेंट फंस गया तो किसी का आर्डर इतना कम हो गया कि वह बर्बाद हो गया। इनमें से कई लोग ओला टैक्सी चलाते मिले जो नोटबंदी के पहले 200-300 लोगों को काम दिया करते थे। इसलिए मैं कहता हूं कि नोटबंदी की कहानी अभी सामने नहीं आई है। इसकी पीड़ा लिए न जाने कितने लोग उस झूठ को जी रहे हैं जो उन पर थोपा गया कि यह कोई क्रांतिकारी कदम था। चुनावी हार-जीत के किस्सों में इस दर्द को हमेशा पीछे कर दिया जाता है मगर जिस पर इसकी मार पड़ी है वो नोटबंदी और जीएसटी के दावों के विज्ञापनों को देखकर अकेले में सिसकता होगा।
रविश कुमार |
प्रधानमंत्री के एक फैसले से 35 लाख लोगों की नौकरियां चली जाएं, इस बात को ढंकने के लिए मोदी सरकार विज्ञापनों पर और कितने हज़ार करोड़ फूंकेगी। साढ़े चार साल में 5000 करोड़ विज्ञापनों पर ख़र्च करने वाली सरकार की एक नीति के कारण इतने परिवारों का घर उजड़ गया। नोटबंदी भारत की आर्थिक संप्रभुता पर हमला था। इसके पीछे के फैसलों और लाभ पाने वालों की कहानी अभी नहीं जानते हैं मगर इसके असर का ढोल अब फटने लगा है। चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने रिटायर होने के तुरंत बाद कह दिया कि काला धन में कोई कमी नहीं आई। भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर और मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार भी खुलकर कह रहे हैं कि नोटबंदी के कारण भारत की आर्थिक रफ्तार धीमी हुई है। इस धीमेपन का कितना असर नौकरी कर रहे और नौकरी में आने की चाह रखने वाले कितने नौजवानों और घरों पर पड़ा होगा, हम इसे ठीक-ठीक नहीं जान सके हैं। नोटबंदी और जीएसटी से बर्बाद परिवारों की व्यक्तिगत कहानियां हमारे सामने नहीं हैं।
ऑल इंडिया मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन (AMIO) ने ट्रेडर,माइक्रो, स्मॉल और मिडियम सेक्टर में एक सर्वे कराया है। इस सर्वे में इस सेक्टर के 34,000 उपक्रमों को शामिल किया गया है। किसी सर्वे के लिए यह छोटी-मोटी संख्या नहीं है। इसी सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस सेक्टर में 35 लाख नौकरियां चली गईं हैं। ट्रेडर सेगमेंट में नौकरियों में 43 फीसदी, माइक्रो सेक्टर में 32 फीसदी, स्माल सेगमेंट में 35 फीसदी और मिडियम सेक्टर में 24 फीसदी नौकरियां चली गई हैं। 2015-16 तक इस सेक्टरों में तेज़ी से वृद्धि हो रही थी लेकिन नोटबंदी के बाद गिरावट आ गई जो जीएसटी के कारण और तेज़ हो गई। AMIO ने हिसाब दिया है कि 2015 पहले ट्रेडर्स सेक्टर में 100 कंपनियां मुनाफा कमा रही थीं तो अब उनकी संख्या 30 रह गई है।
संगठन ने बयान दिया है कि सबसे बुरा असर स्व-रोज़गार करने वालों पर पड़ा है। इसमें दर्ज़ी, मोची, हज़ामत, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन का काम करने वालों पर पड़ा है। यह कितना भयानक है। दिन भर की मेहनत के बाद मामूली कमाई करने वालों पर नोटबंदी ने इतना क्रूर असर डाला है। 2015-16 तक इन सेक्टर में काफी तेज़ी से वृद्धि हो रही थी। लेकिन नोटबंदी के बाद ही इसमें गिरावट आने लगी जो जीएसटी के कारण और भी तेज़ हो गई। अब सरकार से पूछा जाना चाहिए कि मुद्रा लोन को लेकर जो दावा कर रही है उस दावे का आधार क्या है। मई 2017 में अमित शाह ने दावा किया था कि मुद्रा लोन के कारण 7.28 करोड़ लोगों ने स्व-रोजगार हासिल किया है। सितंबर 2017 में SKOCH की किसी रिपोर्ट के हवाले से पीटीआई ने खबर दी थी कि मुद्रा लोन के कारण 5.5 करोड़ लोगों को स्व-रोज़गार मिला है। उस दावे का आधार क्या है। 35 लाख लोगों पर आश्रित परिवारों की संख्या निकाले तो डेढ़ दो करोड़ लोग इस फैसले से सीधे प्रभावित दिखते हैं। वो लोग बड़े सेठ नहीं हैं। आम लोग हैं।
मैं पिछले दिनों दिल्ली और मुंबई में कई लोगों से मिला हूं जिनका नोटबंदी और जीएसटी से पहले अच्छा खासा कारोबार चल रहा था मगर उसके बाद वे बर्बाद हो गए। किसी का साठ लाख का पेमेंट फंस गया तो किसी का आर्डर इतना कम हो गया कि वह बर्बाद हो गया। इनमें से कई लोग ओला टैक्सी चलाते मिले जो नोटबंदी के पहले 200-300 लोगों को काम दिया करते थे। इसलिए मैं कहता हूं कि नोटबंदी की कहानी अभी सामने नहीं आई है। इसकी पीड़ा लिए न जाने कितने लोग उस झूठ को जी रहे हैं जो उन पर थोपा गया कि यह कोई क्रांतिकारी कदम था। चुनावी हार-जीत के किस्सों में इस दर्द को हमेशा पीछे कर दिया जाता है मगर जिस पर इसकी मार पड़ी है वो नोटबंदी और जीएसटी के दावों के विज्ञापनों को देखकर अकेले में सिसकता होगा।
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